खेती-किसानी

गेंहू के उत्पादन पर असर डाल सकते है ये रोग, जानें रोग नियंत्रण के उपाय

गेंहू की फसल में कौन कौन से रोग लगते है एवं उनका रोग प्रबंधन (Disease Management in Wheat) की संपूर्ण जानकारी, जानें लेख में.

Disease Management in Wheat | देश का हर किसान साथी गेहूं की अच्छी पैदावार की लेना चाहता है। लेकिन उसके लिए किसान भाई को गेहूं की खेती की संपूर्ण जानकारी होना आवश्यक है। इसलिए आज हम चौपाल समाचार के इस लेख के माध्यम से आपको गेहूं की फसल में लगने वाले रोग एवं उनका रोग प्रबंधन के बारे में बताएंगे..

1. रतुआ  (Disease Management in Wheat)

गेहूं की फसल में ‘रतुआ’ रोग लगता है, जिसे कई नामों से जानते हैं: रस्ट, रोली, गेरुआ इत्यादि। यह गेहूं का प्रमुख रोग है।

रतुआ तीन प्रकार का होता है –

  1. पीला रतुआ (धारीधार रतुआ या येलो रस्ट)
  2. भूरा रतुआ (पत्ती का रतुआ या ब्राउन रस्ट)
  3. काला रतुआ (तने का रतुआ या ब्लैक रस्ट)

(A)पीला रतुआ – वर्ष 2011 में देश के कई हिस्सों में पीला रतुआ से प्रभावित गेहूं की फसल को देखा गया। यह ‘पक्सीनिया स्ट्राईफारमिस’ नामक कवकजनित रोग (Disease Management in Wheat) है। यह मुख्य रूप से भारत के उत्तर-पश्चिमी मैदानी क्षेत्रों में तथा उत्तर हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में पाया जाता है।

  • रोग लक्षण – इस रोग में गेहूं की पत्तियों की ऊपरी सतह पर पीले रंग की धारियां दिखाई देने लगती हैं। ये धीरे-धीरे पूरी पत्तियों को अपने संक्रमण से पीला कर देती हैं। इसके बाद पीले रंग का पाउडर जमीन पर बिखरा हुआ स्पष्ट दिखाई देने लगता है। इस रोग का पीले रंग की धारियों के रूप में दिखाई देना ही इसका प्रमुख लक्षण है। इस कारण इसे ‘धारीदार रतुआ’ के नाम से भी जाना जाता है।
  • इस रोग (Disease Management in Wheat) के संक्रमण से फसल की वृद्धि रुक जाती है, खासकर उन परिस्थितियों में, जब यह रोग कल्ले निकलने की अवस्था में या उससे पहले आ जाए। तापमान बढ़ने के साथ-साथ पत्तियों पर दिखाई देने वाली पीली धारियां काले रंग में बदल जाती हैं और अंत में सूखकर मुरझा जाती हैं।
  • यह रोग तापमान बढ़ने पर कम हो जाता है। इसी कारण मध्य तथा दक्षिणी क्षेत्रों में यह रोग अधिक तापमान होने के कारण कोई नुकसान नहीं पहुंचाता।
  • यह रोग प्रायः उत्तर हिमालय की पहाड़ियों से उत्तरी मैदानी क्षेत्र में दिखाई पड़ता है, जैसे-पंजाब, हरियाणा, जम्मू तथा हिमालय का मैदानी क्षेत्र, उत्तरी राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखंड का मैदानी भाग इत्यादि।

B) भूरा रतुआ – Disease Management in Wheat

पीले रतुआ की भांति यह रोग भी गेहूं की फसल में लगने वाला रतुआ संक्रमित रोग है। यह एक कवक पक्सीनिया रिकॉन्डिटा ट्रिटीसाई से होता है। यह संपूर्ण भारत में पाया जाता है।

  • रोग लक्षण – इस रोग (Disease Management in Wheat) के प्रारंभ में पत्तियों की ऊपरी सतह पर नारंगी रंग के सूई की नोक के समान बिंदु, बिना क्रम के उभरते हैं, जो बाद में और घने हो जाते हैं। ये पत्तियों एवं पर्णवृतों पर गहरे भूरे रंग के रूप में फैल जाते हैं।
  • तापमान बढ़ने पर इन धब्बों का रंग पत्तियों की निचली सतह पर काला हो जाता है। इसके बाद इस रोग का फैलना बंद हो जाता है।
  • इस रोग से प्रभावित पत्तियां जल्दी सूख जाती हैं, जिससे प्रकाश-संश्लेषण की दर में कमी आने से फसल को काफी नुकसान पहुंचता है।
  • इस रोग (Disease Management in Wheat) का जनक (प्रारंभिक निवेश द्रव्य/इनोकुलम) उत्तर भारत की हिमालय की पहाड़ियों पर गर्मियों में जीवित रहता है। यह सर्दियों में हवा द्वारा मैदानी क्षेत्रों में फैलकर गेहूं की फसल को संक्रमित करता है।

C) काला रतुआ – यह ‘पक्सीनिया ग्रैमिनिस ट्रिटीसाई’ नामक कवकजनित रोग है। यह मुखय रूप से दक्षिण तथा मध्य भारत के क्षेत्रों में अधिक होता है। उत्तरी क्षेत्रों में यह रोग फसल पकने के पश्चात पहुंचता है। इसलिए इसका प्रभाव इन क्षेत्रों में नगण्य होता है।

रोग लक्षण –

  • यह रोग 200 सेल्सियस से अधिक तापमान पर पफैलता है।
  • इस रोग (Disease Management in Wheat) से प्रभावित गेहूं की फसल में तने एवं पत्तियों पर चाकलेटी रंग के धब्बे दिखाई देते हैं। बाद में ये काले रंग में बदल जाते हैं। तने में संक्रमण दिखाई देने के कारण इस रोग को ‘तने का रतुआ’ के नाम से भी जाना जाता है।
  • इस रोग का जनक दक्षिण की नीलगिरि तथा पलनी पर्वत श्रेणियों से आता है और मुखय रूप से दक्षिण एवं मध्य क्षेत्रों को संक्रमित करता है।

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2. खुला कंड

यह रोग ‘असटीलैगो न्यूडा’ नामक कवक से होता है। यह बीज के पूर्णरूप से संक्रमित होने के कारण होता है।

रोग लक्षण –

इस रोग (Disease Management in Wheat) के लक्षण बाली आने पर ही दिखाई देते हैं। रोगी पौधों की बालियां दूर से ही काले पाउडर के रूप में दिखाई देती हैं। ये हवा से उड़कर अन्य स्वस्थ बालियों में बन रहे बीजों को भी संक्रमित कर देती हैं।

रोगी पौधे की बालियों में दाने के स्थान पर रोगकंड (स्पोर्स) काले पाउडर के रूप में पाये जाते हैं। इस कारण बीजोपचार से चूक जाने पर इस रोग की रोकथाम संभव नहीं होती है।

3. पर्ण झुलसा – Disease Management in Wheat

यह रोग मुख्यतः स्पॉट ब्लाच रोगजनक-‘बाइपोलेरिस सोरोकिनियाना’ तथा नेट ब्लाच रोगजनक-‘पाईरेनोफोरा टेरेस’ नामक कवक से होता है। यह सम्पूर्ण भारत में पाया जाता है।

रोग लक्षण –

  • इसके लक्षण पौध के सभी भागों में देखे जा सकते हैं, परंतु पत्तियों पर संक्रमण सर्व प्रमुख है। इससे पत्तियां झुलसी दिखाई देती हैं। इस कारण यह रोग ‘पर्ण झुलसा’ के नाम से भी जाना जाता है। प्रारंभ में ‘बाईपोलेरिस सोरोकिनियाना’ के संक्रमण से स्पॉट ब्लॉच के लक्षण भूरे रंग की नाव के आकार के छोटे धब्बों के रूप में उभरते हैं।
  • ये विकसित होकर पत्तियों को संपूर्ण रूप से या कुछ भागों को झुलसा देते हैं। इससे पत्तियों के ऊतक नष्ट हो जाते हैं और पत्तियों का हरा रंग झुलसा हुआ प्रतीत होता है। इसी प्रकार ‘पाइरेनोफोरा टेरेस’ के संक्रमण से पत्तियों पर भूरे रंग के छोटे धब्बे शिराओं के साथ जाल के आकार में होते हैं।
  • इस प्रकार पत्तियों में प्रकाश-संश्लेषण की दर काफी प्रभावित होती है।
  • हरी पत्तियां (Disease Management in Wheat) समय से पहले सूख जाती हैं तथा बीज बदरंग, हल्के तथा आकार में सिकुड़े से बनते हैं।
  • ऐसा अनुमान लगाया गया है कि इस रोग से संक्रमित फसल की उपज में 45 प्रतिशत तक की हानि हो जाती है।

4. सिरियल सिस्ट निमेटोड

गेहूं में यह रोग ‘हेटरोडेरा एवेनी’ नामक सूत्राकृमि से पैदा होता है। इस रोग का प्रकोप राजस्थान के कई जिलों में देखा गया था जैसे-जयपुर, अलवर, अजमेर, उदयपुर, एवं भीलवाड़ा। इसके साथ ही कुछ पड़ोसी राज्यों हरियाणा, पंजाब, हिमाचल आदि में भी इसका संक्रमण दिखाई पड़ता है।

रोग लक्षण –

  • इस रोग (Disease Management in Wheat) के प्रारंभिक लक्षण फसल बुआई के एक महीने के भीतर ही देखे जा सकते हैं। जनवरी के अंत तक फसल पर यह लक्षण पूर्णतः प्रकट हो जाते हैं।
  • खेत में पौधों पर रोग छोटे-छोटे बिखरे हुए खंडों में दिखाई देते हैं तथा इन खंडों का व्यास 2-3 फुट से अधिक नहीं होता है। इन खंडों में रोगी पौधे ‘बौने’ एवं पीले दिखाई देते हैं। ये ऊंचाई में लगभग 1-2 फुट से अधिक नहीं बढ़ पाते हैं।
  • संक्रमित पौधे बौने एवं पीले होने के अतिरिक्त स्वस्थ पौधों की अपेक्षा कड़े, पतले एवं संकीर्ण पर्ण फलक वाले होते हैं। इन पौधों में दौजियां बहुत कम फूटती हैं तथा इनके तने पतले एवं कमजोर हो जाते हैं।
  • रोगी पौधों में बालियां नहीं आती हैं और यदि बालियां बनती भी हैं तो वे समय से पहले ही निकल आती हैं तथा उनमें दाने प्रायः बनते ही नहीं हैं।
  • प्रभावित पौधे की जड़ों पर सामान्यतः 15 से 20 की संखया में पुटि्‌टयां मिल सकती हैं। ऐसे पौधों को भूमिसे आसानी से खींचकर उखाड़ा जा सकता है।
  • हल्की मृदा में इस रोग (Disease Management in Wheat) का प्रकोप अधिक होता है। इस रोग से गेहूं की अपेक्षा जौ की फसल को अधिक हानि पहुंचती है। यदि संक्रमण गंभीर हो तो पूरी फसल चौपट हो जाती है। इस सूत्राकृमि की उपस्थिति का उल्लेख विश्व के अनेक देशों जैसे अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, कनाडा, इजराइल, डेनमार्क, स्वीडन, श्जापान, उत्तरी एवं दक्षिणी अप्रफीका तथा पाकिस्तान में भी देखने को मिला है।

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5. चूर्णिल आसिता

देश के हर उस क्षेत्र में जहां कहीं भी गेहूं का उत्पादन किया जाता है, इस रोग का प्रकोप देखा गया है। यह रोग इरीसिफी ग्रैमनिस ट्रिटीसाई नामक कवक से होता है। आजकल यह रोग उत्तरी-पहाड़ी तथा उत्तर-पश्चिमी मैदानी क्षेत्रों में काफी फैलने लगा है।

Disease Management in Wheat | रोग लक्षण –

  • इस रोग के लिए ठंडे क्षेत्र एवं ठंडे मौसम जहां वातावरण का तापमान 150 से 200 सेल्सियस के मध्य रहता है, अनुकूल स्थिति है।
  • प्रारंभ में इस रोग (Disease Management in Wheat) के लक्षण पत्तियों की ऊपरी सतह पर गेहूं के आटे के समान सफेद धब्बे के रूप में बिखरे दिखाई देते हैं। बाद में उपयुक्त स्थितियां पाकर बालियों तक भी पहुंच जाते हैं।
  • संक्रमण मध्य फरवरी से मध्य मार्च तक देखा जा सकता है।
  • मार्च के अंतिम दिनों में तापमान बढ़ने के साथ इन सफेद भूरे धब्बों में सूई की नोंक के आकार के गहरे भूरे ‘क्लिस्टोथिसिया’ बनने लगते हैं। इससे इस रोग का फैलाव रुक जाता है।

रोग से हानि –

  • इस रोग से संक्रमित पत्तियां पीली एवं फिर भूरी पड़कर सूख जाती हैं।
  • रोगी पौधे में केे्ल्ले कम होते हैं तथा दाने हल्के एवं सिकुडे़ हुए बनते हैं।
  • फसल (Disease Management in Wheat) की प्रारंभिक अवस्था में यदि यह रोग प्रभावी हो जाए तो उत्पादन में भारी कमी आ जाती है।
  • भारत में गेहूं की फसल में 50 से भी अधिक छोटे-बड़े रोग तथा हानिकारक कीट लगते हैं। आई.पी.एम. (समेकित नाशीजीव प्रबंधन) को अपनाने से गेहूं में कुछ राज्यों को छोड़कर पीला रतुआ के अलावा कोई महामारी नहीं आ पाई है।
  • कुछ पड़ोसी देशों में रतुआ (Disease Management in Wheat) की महामारी ने काफी नुकसान पहुंचाया है। इस प्रकार गेहूं में लगने वाले मुख्य राेग खासकर पीला रतुआ से बचाव के लिए सही दिशा-निर्देश एवं दवा का प्रयोग समय की कसौटी पर खरा साबित हुआ है। है इससे देश में खाद्यान्न उत्पादन में बढ़ोतरी होगी।

रोग प्रबंधन

इन रोगों (Disease Management in Wheat) से फसल हानि को रोकने या कम करने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं –

रोगरोधी किस्मों का प्रयोगः गेहूं में लगने वाले विभिन्न रोगों से बचाव का सबसे आसान और प्रभावी उपाय है, फसलों की रोगरोधी किस्मों को प्रयोग में लाना। संस्तुत किस्मों में रोगरोधिता होती है, जिससे रोग से हानि की आशंका कम हो जाती है। इस समय पीले रतुआ की रोगरोधी प्रजातियों की संख्या कम है। अतः इस रोग से बचाव के लिए दवा का छिड़काव करना उचित है।

बीज उपचार – भारतीय किसान अपने पास संग्रहित बीज (Disease Management in Wheat) से ही गेहूं उगाते हैं या साथी किसानों से लेते हैं। इसलिए यह अति आवश्यक हो जाता है कि बीज का उपचार भलीभांति किया जाए। इसके लिए एक कि.ग्रा. बीज को कार्बोक्सिन (वीटावेक्स 75 डब्ल्यू.पी. 2.5 ग्राम) या टेबुकोनेजोल (रैक्सिल 2 डी.एस. और कार्बोन्डाजिम (बाविस्टीन 50 डब्ल्यू.पी. 2.5 ग्राम) बायोएजेन्ट कवक (ट्राइकोडर्मा विरिडी 4 ग्राम) मिलाकर उपचारित करें।

रासायनिक नियंत्रण – इस प्रकार के नियंत्रण में आजकल मृदा उपचार अधिक लाभकारी तथा उपयोगी पाया गया है। पीला रतुआ की रोकथाम के लिए प्रॉपीकोनाजॉल (टिल्ट 25 ई.सी.) का 0.1 प्रतिशत घोल या टेबुकोनेजोल 250 ई.सी. का 0.1 प्रतिशत की दर से घोल कर छिड़काव करें। इससे रतुआ रोग के साथ-साथ पर्ण झुलसा या चूर्णी फफूंदी (पाउडरी मिल्ड्‌यू) रोग भी नियंत्रित हो जाते हैं।

‘सिरियल सिस्ट निमेटोड’ के नियंत्रण (Disease Management in Wheat) के लिए मुख्य रूप से कार्बोफ्यूरॉन 3 जी. का 1.5 कि.ग्रा./हैक्टर की दर से या कार्बोसल्फान 25 ई.सी का छिड़काव करें।

गेहूं के खुला कंड से संक्रमित बालियों को बूट लीफ से पूरी तरह बाहर आने से पहले ही काटकर पॉलीथीन बैग में इकट्‌ठा करके जला देना चहिए।

दवा छिड़काव में सावधानी

(Disease Management in Wheat)

  • दवा छिड़काव के लिए जल तथा दवा की कम मात्रा का प्रयोग बिल्कुल भी न करें।
  • यदि बारिश हो रही हो या तेज धूप हो तब छिड़काव न करें।
  • इस बात का हमेशा ध्यान रखें छिड़काव करने के ठीक 3 घंटे बाद यदि बारिश आ जाये तो दोबारा छिड़काव करने की कोई जरूरत नहीं, क्योंकि इस्तेमाल की गयी दवा 2-3 घंटे में
  • पौधों में प्रवेश कर जाती है और बारिश से इस पर कोई असर नहीं पड़ता।
  • ग्रीष्मकालीन जुताई रबी फसलों (Disease Management in Wheat) की कटाई के बाद शुरू होती है। इससे भूमि के अंदर रोगजनकों की संख्या में पर्याप्त कमी आ जाती है विशेषकर सूत्राकृमियों में। इसके अलावा
  • बहुवर्षीय खरपतवारों की जड़ें एवं बीज भी बाहर आकर नष्ट हो जाते हैं।

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राधेश्याम मालवीय

मैं राधेश्याम मालवीय Choupal Samachar हिंदी ब्लॉग का Founder हूँ, मैं पत्रकार के साथ एक सफल किसान हूँ, मैं Agriculture से जुड़े विषय में ज्ञान और रुचि रखता हूँ। अगर आपको खेती किसानी से जुड़ी जानकारी चाहिए, तो आप यहां बेझिझक पुछ सकते है। हमारा यह मकसद है के इस कृषि ब्लॉग पर आपको अच्छी से अच्छी और नई से नई जानकारी आपको मिले।
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