खेती-किसानी

साल भर जबरदस्त मुनाफा देने वाली सब्जियां कौन सी है? इनकी खेती कैसे करें जानिए

किसान पूरे वर्ष सब्जी की खेती करके अच्छी कमाई कर सकते हैं साल भर उन सब्जियों की खेती (Top 5 Vegetables Farming) के बारे में जानिए, जिनसे अच्छी कमाई होती है।

Top 5 Vegetables Farming | छोटी जोत वाले किसान सब्जियों की खेती करके साल भर मुनाफा कमा रहे हैं साल भर मुनाफा देने वाली सब्जियों की खेती किसानों को मालामाल कर देगी। आज के इस लेख में हम साल भर अच्छी कमाई देने वाली सब्जियां कौन-कौन सी है। इनकी खेती कैसे की जाती है। सिलसिलेवार बताएंगे।

(1) गिलकी की (Top 5 Vegetables Farming) खेती

गिलकी एक हल्के हरे रंग की सब्जी है, जिसका पौधा लता के रूप में बढ़ता हैं इसका वानस्पतिक नाम लुफ्फा सिलेंड्रिकल है, और यह सब्जी कद्दू वर्गीय परिवार कुकुरबीटासी कुल का पौधा है। यह मुख्य रूप से गर्मियों के मौसम की महत्वपूर्ण सब्जी है, जिसमें विटामिन ए भरपूर मात्रा में होता है। गिलकी भारत में व्यापक रूप से उगाई जाती है और यह काफी हद तक तोरई के समान है।

  1. बुवाई का मौसम – वैसे तो सिंचाई की उपलब्धता होने पर इसकी बुवाई साल भर कर सकते है लेकिन इसकी बुवाई के लिए उचित समय फरवरी के मध्य से मार्च के बीच और मध्य मई से जुलाई के महीने को माना जाता है। यदि आप फरवरी या मार्च के महीने में गिलकी के बीजों को लगाते हैं तो आपको जून से जुलाई तक गिलकी सब्जी तोड़ने मिलती है।
  2. उर्वरक – इन उर्वरक का उपयोग करके गिलकी की उपज को बढ़ाया जा सकता है। बोनमील, वर्मीकम्पोस्ट, नीम की खली, गोबर की खाद का इस्तेमाल कर सकते है।
  3. मिट्टी – गिलकी की खेती के लिए 6.0 से 7 के बीच पीएच मान वाली मिट्टी होने पर अच्छा परिणाम मिलेगा।
  4. तापमान – पौधे की वृद्धि के लिए आवश्यक तापमान 18°C से 35°C के मध्य उपयुक्त है, लेकिन यह सब्जी का पौधा उष्णकटिबंधीय और समशीतोष्ण जलवायु दोनों में प्रचुर मात्रा में वृद्धि कर सकती है।
  5. बुवाई का तरीका – बीजों को लगभग 0.5 इंच गहराई पर किसी गमले या ग्रो बैग की मिट्टी में बोएं।
  6. दो पौधों के बीच दूरी – स्पंज गार्ड के दो पोधों के बीच लगभग 4 फीट की दूरी और क्यारियों में लगभग 5 फीट की दूरी पर लगाया जा सकता है।
  7. अंकुरण का समय – बुवाई से लगभग 6 से 10 दिन में गिलकी के बीज अंकुरित हो जाते हैं।
  8. लगने वाले किट – गिलकी के पौधे को प्रभावित करने वाले कुछ कीट इस प्रकार हैं – माइलबग्स, स्लग, अन्य एफिड्स आदि कीट गिलकी के पौधे को नष्ट कर सकते हैं।
  9. कटाई – बुआई से लगभग 13 से 14 सप्ताह बाद आप गिलकी तोड़ सकते हैं।

(2) मिर्च की खेती

मिर्च बेचवाली सब्जियों में प्रमुख फसलों (Top 5 Vegetables Farming) में से एक है। मिर्च सामान्य रूप से प्रत्यारोपित किया जाता है, कृषि खेती के अतिरिक्त मिर्च की खेती कर भी किसान अच्छा-खासा मुनाफा कमाया जा सकता है, मिर्च के पौधों की विशेष देखभाल की जाती है, मिर्च की खेती के लिए क्या फसल योजना होनी चाहिए, जानिए

  1. मिट्टी – कार्बनिक पदार्थों से भरपूर रेतीली दोमट और दोमट मिट्टी उपयुक्त होती है । मिट्टी रोगजनक और कीट से मुक्त होना चाहिए।
  2. मि‍र्च नर्सरी के लिए जगह का चयन – मिर्च की खेती के लिए चयनित क्षेत्र अच्छी तरह से सूखा होना चाहिए, और जल जमाव से मुक्त होना चाहिए, उचित धूप होनी चाहिए, नर्सरी को पानी की आपूर्ति पास होनी चाहिए ताकि सिंचाई आसानी से हो सके।
  3. मि‍र्च की नर्सरी तैयार करना – क्यारी का आकार – सीडबेड 90 सेमी (3 फीट) चौड़ा, 30 सेमी (1 फीट) जमीन के स्तर से ऊंचा होना चाहिए और 45 सेमी (18 फीट) लंबाई, एक एकड़ में रोपाई करने के लिए एक एकड़ में 4 क्यारीयो की आवश्यकता होगी।
  4. बुआई – मिर्च के बीज की बुवाई के लिए सेमी गहराई पर सीधी लाइनों में बुवाई करते है। इसके बाद बीज को सही से अंकुरित करने के लिए दो बीजो (बीज से बीज की दूरी) के बीच की दूरी 2 सेमी रखते है।
  5. अंकुरित होने के लिए मिर्च के बीज को न्यूनतम 7-9 दिनों की आवश्यकता होती है। इसलिए बीज के अंकुरण के बाद, बीज को बीज के ऊपर से हटा दिया जाता है और पूरे बीज को मच्छरदानी से ढक देते हैं, ताकि रोपाई को सफेद मक्खी, जस्सीड और एफिड्स आदि से बचाया जा सके।
  6. सिंचाई – बीज के अंकुरण के 3 दिनों के बाद पौधो को 15-20 ग्राम रिडोमिल से को 10 लीटर पानी में मिलाकर देते है, जिससे रोगो से बचाव होता है। अधिक सिंचाई के कारण आद्र गलन रोग हो जाता है इसलिए पौधो को रोग से बचाने के लिए नर्सरी की आवशयकता अनुसार सिचाई करे।

रोग व उनके लक्षण

1. श्यामवर्ण एवं फल सड़न – इस रोग में पौधों की ऊपरी भाग सुखने लगता है। इस रोग के का प्रभाव से पौधे की सभी शाखाओं से पत्तियां सूखकर गिर जाती है। यह रोग कोलेटोट्राइकम केप्सीकी के कारण होता है।

2. जीवाणु म्लानि – संक्रमित पौधों की पत्तियाँ अचानक मुरझाकर नीचे की और झुक जाती है और अन्त में पुरा पौधा सूख जाता है। यह रोग रालस्टोनियां सोलेनेसिएरम के नाम के बैक्टीरिया के कारण होता है।

3. पर्ण चित्ती – इस रोग में पत्तियों, तनों व फलों पर छोटे गोलाकार जलसिक्त धब्बे बनते हैं। संक्रमित पौधों की पूरी पत्तियाँ पीली पड़ जाती है तथा गिर जाती है। जिससे पैदावार पर प्रतिकुल प्रभाव पड़ता है।

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(3) टमाटर की खेती

टमाटर का (Top 5 Vegetables Farming) वानस्पतिक नाम लाइकोपर्सिकन एस्कुलेन्टम है। यह सोलेनेसी कुल का पौधा है। भारत में उगाई जाने वाली सब्जियों में टमाटर की खेती का प्रमुख स्थान है। सब्जी के अतिरिक्ति इसका सुप, चटनी, सलाद, सांस आदि में भी इसका उपयोग किया जाता है। टमाटर के विविध उपयोगों के कारण इसकी मांग सालभर रहती है अत: किसान भाई सालभर टमाटर की खेती करके अधिक लाभ कमा सकते है।

  • मिट्टी – भूमि में जल निकास की उचित व्यवस्था होनी चाहिए तथा पी.एच. 6-7 के मध्य होना चाहिए।
  • खेत तैयारी – भूमि में 3-4 बार जुताई करने के पश्चात् पाटा चलाकर भूमि को भूरभूरी व समतल कर लेना चाहिए।
  • उन्नत किस्में – निर्धारित वृध्दि देने वाली किस्मों में एस एच 2, पुसा गौरव, पुसा अर्ली ड्वार्क व अनिर्धारित वृध्दि देने वाली किस्मों में पूसा रूबी, सलेक्षन – 120, पंत बहार इत्यादि है।
  • इसके अतिरिक्त रबी के लिए हिमसोना, अभिताब नं 3, हिमषिखर व खरीफ ऋतु के लिए करिष्मा, रष्मि, गीता कुबेर किस्में अधिक उपज प्रदान करवाने वाली किस्में है।
  • बीज की मात्रा – टमाटर की एक एकड़ जमीन के लिए 150-200 ग्राम बीज की आवष्कता होती है।
  • बुवाई का समय – मैदानी भागों में टमाटर की बुवाई वर्ष में दो बार की जाती है। इसकी खेती जुन-जुलाई माह में व नवम्बर दिसम्बर माह में कर सकते है।
  • पौधों की रोपाई – इसके पौधे पौधे से पौधे की दुरी 45-60 सेमी तथा कतार से कतार की दुरी 75-90 सेमी रखनी चाहिए।
  • खरपतवार नियंत्रण – खरपतवार नियन्त्रण के लिए 400 मिली प्रति एकड पेन्डीमिथेलीन का इस्तेमाल करें। पानी की यात्रा 200 लीटर प्रति एकड काम में होवे।
  • खाद व उर्वरक – बुवाई के पहले 10 टन गोबर की खाद। रासायनिक खाद का प्रयोग अनुषंसा के अनुसार एनपीके की मात्रा 80:40:40 किलो प्रति एकड का उपयोग करे।
  • कीट – टमाटर में पत्तियों का सुरंगी कीट, फल छेदक, महु व सफेद मक्खी, सुत्रकृमि आदि किट टमाटर की फसल को नुकसान पहुंचा सकते है।

रोग नियंत्रण 

1. आद्र गलन – फसल का यह रोग पौधे में फगंस लगा देता है। रोग से बचाने के लिए बीजों को बुवाई से पूर्व कार्बेडाजिम 2 ग्राम प्रति किलों बज के अनुसार उपचारित करें।

2. पछेती अंगमारी – यह रोग पौधों की पत्ताीयों पर किसी भी अवस्था में होता है। भूरे व काले बैंगनी छब्बें पत्तियों पर दिखाई देते है। फसल को इस रोग से बचाने के लिए मेन्कोजेब 25 ग्राम या क्लोरोथेलोनिल 25 ग्राम प्रति 10 लीटर या ब्लाइटोक्स 5 ग्राम प्रतिलीटर पानी की दर से छिड़कव करना चाहिए।

3. फल सड़न – इस रोग के लक्षण फलों पर पीले रंग के धब्बों के रूप में प्रकट होते है और ये धब्बे बाद में बड़े हो जाते हैं। जिसके कारण फल के अन्दर गूदे सड़ जाते हैं ।

4. जीवाणु म्लानि – रोग के लक्षण किसी भी उम्र के पौधे पर दिखाई दे सकता है। संक्रमित पौधों की पत्तियां हरी की हरी ही मुरझा जाती है, जिससे पौधा मर जाता है।

5. पर्ण कुंचन – इस रोग में पत्तियां एक ही स्थान पर इकट्ठे हो जाती है।जिससे इन पत्तियों का आकार छोटा हो जाता है और फूल व फल बहुत कम लगते है तथा संक्रमित पौधे झाड़ियों के समान दिखाई देने लगता है।

6. रोगराधी प्रजातियां – पूसा -120, 2, 4 अर्का वरदान, काषी विषेष, काषी अमृत, अर्का अन्यया, अर्का अमिजीत, अर्का आलोक।

(4) करेला की खेती

जलवायु – करेला की खेती के लिए गर्म एवं आर्द्र जलवायु अति उपयुक्त है। करेला की खेती के लिए न्यूनतम तापक्रम 20 डिग्री सेंटीग्रेड तथा अधिकतम 35 -40 डिग्री सेंटीग्रेड होना चाहिए।

बीज की मात्रा व नर्सरी (Top 5 Vegetables Farming) – खेत में बनाये हुए हर थाल में चारों तरफ 4-5 करेले के बीज 2-3 सेमी गहराई पर बो देना चाहिए। ग्रीष्म ऋतु की फसल हेतु बीज को बोआई से पूर्व 12-18 घंटे तक पानी में रखते हैं। पौलिथिन बैग में एक बीज प्रति बैग ही बोते है। बीज का अंकुरण न होने पर उसी बैग में दूसरा बीज पुन बोआई कर देना चाहिए। इन फसलों में कतार से कतार की दूरी 1-5 मीटर एवं पौधे से पौधे की दूरी 60 से 120 सेमी रखना चाहिए।

  • खेत की तैयारी – करेला की खेती के लिए करेला की कतार एवं पौधों के बीज के‌ हिसाब से उचित दूरी पर गोबर खाद 10-12 किलोग्राम डालकर मिट्टी में अच्छी तरह मिलाकर थाला बनाना चाहिए। हर एक थाले में बोवाई से पूर्व 2.3 ग्राम फ्यूराडॉन या फोरेट दानेदार दवा बिखेर कर अच्छी तरह से मिला देना चाहिए।
  • रोपाई की विधि – बीजों को नालियों के दोनों तरफ बुआई करते हैं। नालियों की सिंचाई करके मेड़ों पर पानी की सतह के ऊपर 2.3 बीज एक स्थान पर इस प्रकार लगाये जाते हैं कि बीजों को नमी कैपिलटीमुखमेंट से प्राप्त हो। बीज बोने से 24 घंटे पहले पानी में भिगोकर रखेंए जिससे अंकुरण में सुविधा होती है।
  • खाद एवं उर्वरक – खेत को उर्वरक नाइट्रोजन की आधी मात्रा तथा स्फूर एवं पोटाश की पूरी मात्रा बोवाई के समय देना चाहिए। शेष नाइट्रोजन की आधी मात्रा टाप ड्रेसिंग के रूप में बोवाई के 30-40 दिन बाद देना चाहिए।
  • सिंचाई – फसल की सिंचाई वर्ष आधारित है। साधारणतरू प्रति 8-10 दिनों बाद सिंचाई की जाती है।
  • उन्नत किस्में – हिसार सेलेक्शंन, ग्रीन लांग, फैजाबाद स्माल, जोनपुरी झलारी, सुपर कटाई, सफ़ेद लांग, ऑल सीजन, हिरकारी, भाग्य सुरूचि, मेघा-एफ 1, वरून-1, पूनम, तीजारावी, अमन नं. 24, नन्हा क्र-13 ।

किट‌ व रोकथाम

1. रैडबीटल

यह एक हानिकारक कीट है, जो कि करेला के पौधे पर प्रारम्भिक अवस्था पर आक्रमण करता है। यह कीट पत्तियों का भक्षण कर पौधे की बढ़वार को रोक देता है। यह करेला पौधे की जड़ों को काटकर फसल को नष्ट कर देती है।

रोकथाम : रैडबीटल से करेला की फसल सुरक्षा हेतु 5 लीटर पतंजलिनिम्बादी को 40 लीटर पानी में मिलाकर सप्ताह में दो बार छिड़काव करने से रैडबीटल से फसल को होने वाले नुकसान से बचा जा सकता है।

2. पाउडरी मिल्ड्यू रोग

इस रोग में कवक की वजह से करेले की बेल एंव पत्तियों पर सफेद गोलाकार जाल फैल जाते हैं, जो बाद में कत्थई रंग के हो जाते हैं। इस रोग में पत्तियां पीली होकर सूख जाती हैं।

उपचार : इस रोग से करेला की फसल को सुरक्षित रखने के लिए 5 लीटर खट्टी छाछ में 2 लीटरगौमूत्र तथा 40 लीटर पानी मिलाकर इस गोल का छिड़काव करते रहना चाहिए।

3. एंथ्रेक्वनोज रोग

करेला का यह रोग से ग्रसित पौधे की पत्तियों पर काले धब्बे बन जाते हैं। जिससे पौधा प्रकाश संश्लेषण क्रिया में असमर्थ हो जाता है और पौधे का विकास पूरी तरह से नहीं हो पाता।

उपचार : रोग की रोकथाम हेतु एक एकड़ फसल के लिए 10 लीटर गौमूत्र में 4 किलोग्राम आडू पत्ते एवं 4 किलोग्राम नीम के पत्ते व 2 किलोग्राम लहसुन को उबाल कर ठण्डा कर लेंए 40 लीटर पानी में इसे मिलाकर छिड़काव करें।

फल तुड़ाई – सब्जी के लिए फलों को साधारणतरू उस समय तोड़ा जाता हैए जब बीज कच्चे हों। यह अवस्था फल के आकार एवं रंग से मालूम की जा सकती है। जब बीज पकने की अवस्था आती हैं तो फल पीले होकर रंग बदल लेते हैं।

प्रति हेक्टेयर पैदावार – करेला की पैदावार 130 से 150 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक हो जाती है।

(5) लौकी की खेती

  • जलवायु – लौकी की खेती (Top 5 Vegetables Farming) के लिए गर्म और आर्द्र जलवायु की जरुरत होती है। बीज अंकुरण के लिए 30 से 35 डिग्री सेन्टीग्रेड और पौधों की बढ़वार के लिए 32 से 38 डिग्री सेन्टीग्रेड तापमान उपर्युक्त होता है।
  • मिट्टी – लौकी की फसल के लिए बलुई दोमट और जीवांश युक्त चिकनी मिट्टी सबसे अच्छी होती है। जिसमें जल धारण क्षमता ज्यादा और पीएच की मात्रा 6.0 से 7.0 के बीच हो, वहां लौकी की खेती अच्छी होती है।
  • बुवाई समय – लौकी की खेती का सही समय जायद (ग्रीष्मकालीन) के लिए जनवरी से मार्च, खरीफ (वर्षाकालीन) के लिए मध्य जून से जुलाई की शुरुआत तक और रबी के लिए सितंम्बर-अक्टूबर है।
  • खेती तैयारी – लौकी की खेती के लिए सबसे पहले मिट्टी की अच्छी तरह से जुताई कर लें। इसके लिए मचान विधि से खेती सबसे अच्छी होती है। बीज की बुआई 1 मीटर से 2 मीटर की दूरी पर करें।
  • लौकी की उन्नत किस्में – काशी गंगा, काशी बहार, पूसा नवीन, अर्का बहार, पूसा संदेश, पूसा कोमल, नरेंद्र रश्मि इत्यादि।
  • सिंचाई – ग्रीष्मकालीन फसल के लिए 4‐5 दिन के अंतराल पर सिंचाई की जरुरत होती है जबकि बारिश नहीं होने पर 10 से 15 दिन के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए।
  • उर्वरक प्रबंधन – खेत में पहले गोबर की 200 से 250 क्विंटल खाद को समान मात्रा में मिला लें। अच्छी पैदावार के लिए नाइट्रोजन, पोटाश बेहद लाभकारी होती है। नाइट्रोजन की आधी मात्रा, फास्फोरस तथा पोटाश की पूरी मात्रा खेत की तैयारी के समय देना चाहिए।
  • लागत व कमाई – एक एकड़ की जंमीन मे लौकी की खेती करने के लिए करीब 15 से 20 हजार तक की लागत आती है और एक एकड़ की भूमि पर लगभग 70 से 90 क्विंटल लौकी का उत्पादन हो जाता है। जिससे करीब 80 हजार से 1 लाख तक की कमाई हो जाती है।

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राधेश्याम मालवीय

मैं राधेश्याम मालवीय Choupal Samachar हिंदी ब्लॉग का Founder हूँ, मैं पत्रकार के साथ एक सफल किसान हूँ, मैं Agriculture से जुड़े विषय में ज्ञान और रुचि रखता हूँ। अगर आपको खेती किसानी से जुड़ी जानकारी चाहिए, तो आप यहां बेझिझक पुछ सकते है। हमारा यह मकसद है के इस कृषि ब्लॉग पर आपको अच्छी से अच्छी और नई से नई जानकारी आपको मिले।
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